Wednesday 7 December 2011

बिल्डरों ने डकारे खेत..................


10 सालों में 30 फीसदी खेत कांक्रीट के जंगल बने

किसानी को लाभ का धंधा बनाने का ख्याब दिखाने वाली सरकार की नाक के नीचे ‘खेत’ खत्म होते जा रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में एक तिहाई यानि लगभग 30 फीसदी खेती की जमीन टाउनशिप की बली चढ़ गई और 10 फीसदी बांध, सड़क जैसे विकास कार्यों की। राजधानी भोपाल सहित मध्यप्रदेश के तमाम महानगरों और शहरों के आस-पास करीबन 20 से 50 किलोमीटर तक खेती की जमीन पर बिल्डरों ने खरीद ली है। तरक्की के नाम पर कॉलोनियों काटने की इस अंधी होड़ में किसानों ने भी जमीन की अच्छी कीमत वसूली, लेकिन उस रकम को हजम नहीं कर सके। हालात ये हैं कि लाखों की जमीन बेचने वाले किसान अजीविका को मोहताज हो गए। विकास के नाम पर अन्नदाता को लूटने और किसानी को खत्म करने की साजिश का पर्दाफाश करती 

प्रमोद त्रिवेदी की स्टोरी

सरकार की पर्यावरण और वनों से सम्बंधित संसदीय समिति ने अपनी 30 वी रिपोर्ट में कहा था कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50 फीसदी यानी 320 मिलियन हेक्टियर वन तथा कृषि योग्य हरित भूमि तथाकथित विकास की भेंट चढ़ गया। आंकड़े बताते हैं कि अकेले 1951 से 1980 के बीच 60 हजार हेक्टियर भूमि सिर्फ सड़कों और विद्युत ट्रांसमिशन लाइन बिछाने में ही चली गर्इं। इसी दौरान 134 हजार हेक्टियर भूमि आवास के लिए इस्तेमाल कर ली गई। अभी हाल के आंकड़ों पर गौर करे तो सिर्फ पिछले 10 वर्षों में कुल कृषि योग्य भूमि का 30 फीसदी जनता और बिल्डरों ने आवास और टाउनशिप बनाने में नष्ट कर दी है। रोज कोई न कोई बिल्डर कहीं न कहीं टाउनशिप का विज्ञापन निकाल भूमि पूजन कर रहा है। और टाउनशिप में एक फ्लैट की कीमत इतनी है कि एक आम मध्यमवर्गीय परिवार भी उसमे रहने के ख्वाब नहीं देख सकता, गरीब के रहने की बात तो दूर। फिर भी सरकार खुले मन से इस कृषि योग्य भूमि को इस तरह लुटा रही है? ऐसे हालात में कृषि उत्पादन कम होने के साथ कीमतों में भी इजाफा हो रहा है। बिल्डरों के साथ जमीन के इस खेल में नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत भी जगजाहिर है। अपनी काली कमाई को जायज बनाने और इनकम टैक्स बचाने के लिए यह लोग खेती की जमीन खरीदकर किसान बन गए और बाद में फार्महाउस के नाम पर प्लाट काट दिए। इस तरह दिनों-दिन खेती की जमीन खत्म करने का खेल बदस्तूर जारी है।


काली कमाई से खरीदे खेत


रायसेन जिले में एक गांव है रोंड़ा। 7 साल पहले तक गोस्वामी और दांगी बाहुल्स इस गांव के अधिकांश किसानों के पास खेती के लिए जमीन तो खूब थी, लेकिन पानी की कमी के कारण पैदावार कम होती थी। हलांकि गांव के मेहनतकश किसान इतनी फसल तो पैदा कर लेते थे कि उनके परिवार का भरन-पोषण और शादी-विवाह जैसी जरूरतों में किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। सात साल पहले यहां खेती की जमीन की कीमत थी 30 हजार रुपए प्रति बीघा। इस गांव की खुशहाली पर भोपाल के कुछ पूंजीपतियों की नजर पड़ी। उन्होंने 30 हजार रुपए प्रति बीघा की जमीन का 50 हजार रुपए प्रति बीघा भाव लगाकर गांव के किसानों की जमीन खरीदना शुरू कर दिया। भाव ज्यादा मिलने पर गांव के भोले-भाले किसान पूंजीपतियों के बहकावे में आ गए और अपनी जमीन का सौदा कर लिया। लाखों रुपए में खेती की जमीन का सौदा करके किसान शहर में आ गए और कोई व्यवसाय शुरू करना का सोचा। शहर आकर कार खरीद ली और बच्चों को महंगे स्कूल में भर्ती करवा दिया। कुछ रुपयों से मकान और ऐशो-आराम के सामान खरीद लिए। बाकी बची रकम से व्यवसाय शुरू किया, लेकिन अनुभव न होने के कारण रकम गवां दी। अजीविका का साधन न होने से धीरे-धीरे सब बिक गया और वापिस गांव में आकर मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं। रोंडा के मोहन गोस्वामी बताते हैं कि 60 बीघा जमीन बेचने के बाद लाखों रुपए आए, लेकिन अब कुछ भी नहीं है। जिन खेतों में मजदूर लगाते थे, उन्हीं में मजदूरी करना पड़ रही है। यही हाल गांव के रामकरण दांगी का है। ये लोग बताते हैं कि गांव के आधे किसानों ने जमीन बेंच दी और सब परेशान हैं। इस जमीन को खरीदने वालों ने अपनी काली कमाई को सुरक्षित रखने के लिए जमीन का सौदा किया, लेकिन किसानों को बर्बाद कर दिया। कुछ यही हाल भोपाल से सटे कोलार, नयापुरा के अधिकांश किसानों का हुआ।


अधिग्रहण से भी जमीन घटी


महेश्वर-हायडल प्रोजेक्ट से राज्य की कुछ आबादी को चाहे बिजली मिलने की उम्मीद हो, लेकिन इस प्रोजेक्ट पर कम शुरू होते ही वहां के अविवाहित युवकों की परेशानी खड़ी हो गई है। पाटीदार समाज बाहूल्य इस क्षेत्र में पिछले 16 वर्षों से युवकों की शादी करना महज एक सपना बन गया है। इस बीच में वहां इक्का-दुक्का युवकों के ही विवाह हो सके हैं। इस बांध के अंतर्गत डूब में आने वाले61 गांवों में निवास करने वाले परिवारों से उनके रिश्तेदारों ने कन्नी काट ली है। कोई भी स्वजाति परिवार वहां के लड़कों को अपना दामाद नहीं बनाना चाहते जबकि लड़कियों की शादी में कोई बाधा नहीं आ रहीं है। गौरतलब है कि खरगौन जिले के मंडलेश्वर में महेश्वर हायड्रल प्रोजेक्ट से 400 मेगावाट बिजली बनेगी । बांध की चपेट में61 गांव आ जाएंगे। इस बांध का निर्माण कार्य लगभग पूरा होने की कगार पर है, जिसमें शासन   के नियमानुसार इन सभी गांवों का पुनर्वास होना है, लेकिन पुनर्वास में केवल इन गांवों के कृषकों के रहने के लिए आशियाना भर ही मिलेगा। जिससे इनके पास जीविका चलाने का कोई भी साधन नहीं बचेगा। पाटीदार समाज गैर कृषक परिवारों में अपनी लड़की की शादी करना उचित नहीं समझते है। डूब में आने वाले सूल गांव के निवासी शंकर पाटीदार बताते है कि हमारे समाज का जीविका चालने का मुख्या साधन कृषि है। जिसमें बिना कृषि वाले किसान के यहां कोई भी विवाह करने को तैयार नहीं होता है। इससे हमारे गांव सहित आसपास के 22 गांवों में अनेक युवा बिना शादी के ही रह गए है, क्योंकि हमारी जमीन एक या दो साल में डूब क्षेत्र में आ जाएगी। वहीं पथराड़ गांव के लखन बताते है कि डूब क्षेत्र होने के कारन यह स्थिति निर्मित हुई है। समाज की परंपरा अनुसार बिना कृषि वाले लोगों के यहां शादी करना ठीक नहीं माना जाता है। इस समास्या के कारण कई युवा तो यहां से पलायन कर गए है।

इंदौर में हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि खतरे में


इंदौर में आवास पर्यावरण विभाग की प्रस्तावित स्पेशल टाउनशिप पॉलिसी पर अमल हुआ तो इंदौर जिले की 32 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खतरे में पड़ जाएगी। खास बात यह है कि इसमें 27 हजार हेक्टयर जमीन अत्यधिक उपजाऊ है। जमीनों पर गिद्ध की तरह नजर रखने वाले भू-माफिया को इससे न केवल खुला क्षेत्र मिल जाएगा बल्कि जिले में खेती पूरी तरह चौपट हो जाएगी। प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर के लिए जो विकास योजना (मास्टर प्लान) 1991 और 2021 बनी है, उसमें प्रत्येक क्षेत्र के लिए जमीनों का संरक्षण किया गया है। जिले की 50 हजार 525 हेक्टेयर जमीन में से मास्टर प्लान 2021 में कृषि के लिए 31 हजार 820 हेक्टेयर और आवासीय उपयोग के लिए 7 हजार 352 हेक्टेयर जमीन संरक्षित की गई है। टाउनशिप पॉलिसी के प्रस्तावों ने मास्टर प्लान के विश्लेषण और संभावनाओं के साथ उन सर्वे और विश्लेषणों को भी नकार दिया है जो जीआईएस (जियोग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम) और अन्य सैटेलाइट की मदद से बनाए गए हैं। इसमें नगर तथा ग्राम निवेश विभाग के साथ ही शासन भी कहीं न कहीं झूठा साबित हो रहा है, जिसने प्लान को मंजूरी दी। यह सब बड़े बिल्डरों और कॉलोनाइजर को फायदा पहुंचाने की कवायद माना जा रहा है।


हर तरफ कॉलोनी


भोपाल के एक बिल्डर ने औबेदुल्लागंज के समीप करीब 200 किसानों की जमीन खरीदकर टाउनशिप का प्लान किया। ये खुलासा हुआ उस समय हुआ जब बिल्डर पर आयकर विभाग ने शिकंजा कसा। इन किसानों ने आयकर विभाग में दिए बयान में बताया कि हमारी खेती की जमीन को बिल्डर ने बरगलाकर खरीद लिया। अब किसानों का अजीविका का जरिया छिन चुका है। भोपाल से सीहोर, दीवानगंज, परवलिया, नयापुरा, औबेदुल्लागंज तक खेती की जमीन खत्म होकर टाउनशिप की भेंट चढ़ गई। इससे बिल्डरों को तो करोड़ों का फायदा हुआ, लेकिन किसानों को रोजगार के लाले पड़ गए। यही हाल जबलपुर, उज्जैन, इंदौर, ग्वालियर का है। महानगरों के समीप लगे क्षेत्र ग्राम पंचायत में आने के कारण बिल्डर आसानी से फार्म हाउस के नाम पर प्लाट काट कर बेंच रहे हैं। यही हाल प्रदेश केअधिकांश जिला मुख्यालयों के आस-पास की जमीन का है।


विकास के नाम पर भी खत्म हो रही जमीन


महेश्वर हाइड्रिल प्रोजेक्ट हो या इंदिरा सागर बांध परियोजना, संजय सागर बांध परियोजना अथवा राष्ट्रीय राज्यमार्ग। विकास की इबारत लिखने वाली योजनाओं ने किसानों पर कहर ढाया है। इन परियोजनाओं के कारण सैंकड़ों गांव की किसानी की जमीन चली गई। किसानों को मुआवजा तो मिला, लेकिन अजीविका के लिए खेती की जमीन नहीं मिल सकी।
 

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