Saturday 10 December 2011

बढ़ रहा कमाई का लालच


भगवान के बाद हम डॉक्टर  को ही दूसरा भगवान मानते है । क्योंकि किसी भी खतरनाक हादसे के बाद  वही हमको जीवन दान देता है। लेकिन आजकल अधिकतर डॉक्टर ने इसे पैसा कमाने का धंधा बना लिया है । जिनका धर्म मानव सेवा नही, मात्र पैसा कमाना रह गया है । चिकित्सा की पढ़ाई में लगने वाला डोनेशन ,महंगी फीस जमा कर आजकल लोग अपने बच्चो को डॉक्टर बना रहे हैं। इसलिए उनका और उनके परिजनों का  मकसद जल्दी जल्दी पैसा कमाना और अपने खर्च की भरपाई करना होता है। उसके लिए भ्रूण हत्या ,अनावश्यक आॅपरेशन ,कमीशन के लालच में महंगी दवाईयां लिखना इत्यादि कुकृत्य करते हैं। 



सरकारी नौकरी में होकर भी प्रायवेट प्रेक्टिस करना, प्रायवेट नर्सिंग होम में अपनी सेवा देना, सरकारी नौकरी में अनियमितता पूर्ण कार्यों को बढ़ावा देना ,जैसे कई आपराधिक कृत्य अपना लेते है। कुछ को छोड़ दें तो बाकि का ईमान ही पैसा होता है । इसलिए आज डॉक्टर के प्रति लोगों का सम्मान घटा और नफरत बढ़ी है। जिसका नतीजा है कि शासकीय व निजी चिकित्सकों के साथ आए दिन मारपीट व अभद्र व्यवहार की घटना सामने आती हैं। 


  गांव की महिला जिसकी बच्चादानी आधी बाहर आ चुकी थी । वह खून में लथपथ तड़प रही थी । उसके परिजन उसे शहर के प्रायवेट अस्पताल ले गए। वहां डॉक्टर  ने उनसे 15 हजार रुपए मांगे। महिला के परिजन के पास इतने रुपए नही थे। वह महिला क ो सरकारी अस्पताल ले गए । वहां पर भी 5 हजार रुपए डॉक्टर ने जमा करवाएं फिर आपरेशन किया।       


    
पड़ोस में रहने वाली आंटी अपनी बहू की डिलीवरी क रवाने के लिए जिला अस्पताल गईं। उन्होंने पर्ची बनवाई तभी एक नर्स आई और उनकी बहू को डिलीवरी के लिए आॅपरेशन थिएटर ले गई। कुछ देर बाद नर्स बाहर आकर कहने लगी 3 हजार रुपए जमा करवाइए तभी आपकी बहू की डिलीवरी करवाएंगे। उस परिस्थिति में वे  क्या करती? उन्होंने तीन हजार रुपए दिए तब जाकर उनकी बहू की डिलीवरी हो पाई।   


इसी तरह वार्ड में लेटी एक महिला की गंभीर हालत थी। उसे तकलीफ हो रही थी। उसके परिजन नर्स क ो बुलाने गए तो नर्स ने अनसुना कर दिया । वापस बुलाने गए तब कह दिया कि आ रहे है , किंतु फिर भी नही आई। एक बार फिर बुलाने गए तब नर्स उनसे अपशब्द कहने लगी - इतने बच्चे क्यों पैदा करती हो,जब इतनी जल्दी है तो किसी प्रायवेट अस्पताल ले जाना था यहां क्यों आ गई।   
ये सीन किसी फिल्म की स्टोरी के नहीं है। ये सीन हर दिन आपको सरकारी अस्पतालों में देखने को मिल जाएंगे । सरकारी अस्पतालों में जगह जगह दीवारों पर लिखे हुए है - दवाईयां अस्पताल से दी जाएंगी। बाजार की दवाइयॉ न लाएं। यहां मुफ्त इलाज होता है डॉक्टर को रुपए देना दण्डनीय अपराध है। मप्र सरकार की जननी कल्याण योजना से 33 लाख महिलाएं लाभांवित हुई हैं। इस तरह की कई योजनाओं का वर्णन किया गया है। योजना के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र की गर्भवती महिला को सरकारी अस्पताल में प्रसव कराने पर 14 सौ रुपए दिए जाते हैं। शहर की महिला को एक हजार रुपए शासन की तरफ से दिए जाते है। बीपीएल परिवारों का निशुल्क ईलाज किया जाएगा। नि:शुल्क जांच दवाईयां, निशुल्क कृत्रिम अंग -उपकरण एवं निशुल्क परिवहन की सुविधा उपलब्ध करवाई जाएगी। लेकिन हकीकतन ऐसा नहीं होता है। ये स्लोगन केवल लिखने-पढ़ने के लिए हैं, इन पर अमल नहीं होता।



आदिवासी महिला राधा का कहना है कि नर्से उनसे बुरा बर्ताव करती है गालियां देती है। यहां के सफाई वाले भी हमारे साथ गाली गलौज करते हैं। हमसे दवाईयां भी बाहर से लाने को कहते है। नीता(बदला हुआ नाम) का कहना है कि जब डिलीवरी के लिए वह जिला अस्पताल पहुंची। डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने बताया नार्मल डिलीवरी होगी आप भर्ती हो जाइए। कुछ समय बाद दूसरी डॉक्टर देखती हैं और कहती हैं कि आपका बच्चा आॅपरेशन से होगा। अभी आपरेशन करना होगा क्योंकि इमर्जेंसी केस है। आप तीन हजार रुपए जमा करवाइए वरना बच्चा मर जाएगा। उसके परिजन ने तुरंत रुपए जमा कर दिए। शाम को जब पहली डॉक्टर आती है वह कहती है कि आपकी तो नार्मल डिलीवरी होनी थी आप और आपका बच्चा तो ठीक था। नीता बताती है कि दुसरी डॉक्टर ने आॅपरेशन किया। वह डॉक्टर दूसरी डॉक्टर  से पूछती है तो वह  कहती है यह तो -एम.फेलो-(रुपए देने वाले) महिला थी। कुछ डॉक्टर रुपए लेने के लिए नार्मल को भी सीजेरियन बता देते है ।
 

Wednesday 7 December 2011

बिल्डरों ने डकारे खेत..................


10 सालों में 30 फीसदी खेत कांक्रीट के जंगल बने

किसानी को लाभ का धंधा बनाने का ख्याब दिखाने वाली सरकार की नाक के नीचे ‘खेत’ खत्म होते जा रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में एक तिहाई यानि लगभग 30 फीसदी खेती की जमीन टाउनशिप की बली चढ़ गई और 10 फीसदी बांध, सड़क जैसे विकास कार्यों की। राजधानी भोपाल सहित मध्यप्रदेश के तमाम महानगरों और शहरों के आस-पास करीबन 20 से 50 किलोमीटर तक खेती की जमीन पर बिल्डरों ने खरीद ली है। तरक्की के नाम पर कॉलोनियों काटने की इस अंधी होड़ में किसानों ने भी जमीन की अच्छी कीमत वसूली, लेकिन उस रकम को हजम नहीं कर सके। हालात ये हैं कि लाखों की जमीन बेचने वाले किसान अजीविका को मोहताज हो गए। विकास के नाम पर अन्नदाता को लूटने और किसानी को खत्म करने की साजिश का पर्दाफाश करती 

प्रमोद त्रिवेदी की स्टोरी

सरकार की पर्यावरण और वनों से सम्बंधित संसदीय समिति ने अपनी 30 वी रिपोर्ट में कहा था कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50 फीसदी यानी 320 मिलियन हेक्टियर वन तथा कृषि योग्य हरित भूमि तथाकथित विकास की भेंट चढ़ गया। आंकड़े बताते हैं कि अकेले 1951 से 1980 के बीच 60 हजार हेक्टियर भूमि सिर्फ सड़कों और विद्युत ट्रांसमिशन लाइन बिछाने में ही चली गर्इं। इसी दौरान 134 हजार हेक्टियर भूमि आवास के लिए इस्तेमाल कर ली गई। अभी हाल के आंकड़ों पर गौर करे तो सिर्फ पिछले 10 वर्षों में कुल कृषि योग्य भूमि का 30 फीसदी जनता और बिल्डरों ने आवास और टाउनशिप बनाने में नष्ट कर दी है। रोज कोई न कोई बिल्डर कहीं न कहीं टाउनशिप का विज्ञापन निकाल भूमि पूजन कर रहा है। और टाउनशिप में एक फ्लैट की कीमत इतनी है कि एक आम मध्यमवर्गीय परिवार भी उसमे रहने के ख्वाब नहीं देख सकता, गरीब के रहने की बात तो दूर। फिर भी सरकार खुले मन से इस कृषि योग्य भूमि को इस तरह लुटा रही है? ऐसे हालात में कृषि उत्पादन कम होने के साथ कीमतों में भी इजाफा हो रहा है। बिल्डरों के साथ जमीन के इस खेल में नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत भी जगजाहिर है। अपनी काली कमाई को जायज बनाने और इनकम टैक्स बचाने के लिए यह लोग खेती की जमीन खरीदकर किसान बन गए और बाद में फार्महाउस के नाम पर प्लाट काट दिए। इस तरह दिनों-दिन खेती की जमीन खत्म करने का खेल बदस्तूर जारी है।


काली कमाई से खरीदे खेत


रायसेन जिले में एक गांव है रोंड़ा। 7 साल पहले तक गोस्वामी और दांगी बाहुल्स इस गांव के अधिकांश किसानों के पास खेती के लिए जमीन तो खूब थी, लेकिन पानी की कमी के कारण पैदावार कम होती थी। हलांकि गांव के मेहनतकश किसान इतनी फसल तो पैदा कर लेते थे कि उनके परिवार का भरन-पोषण और शादी-विवाह जैसी जरूरतों में किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। सात साल पहले यहां खेती की जमीन की कीमत थी 30 हजार रुपए प्रति बीघा। इस गांव की खुशहाली पर भोपाल के कुछ पूंजीपतियों की नजर पड़ी। उन्होंने 30 हजार रुपए प्रति बीघा की जमीन का 50 हजार रुपए प्रति बीघा भाव लगाकर गांव के किसानों की जमीन खरीदना शुरू कर दिया। भाव ज्यादा मिलने पर गांव के भोले-भाले किसान पूंजीपतियों के बहकावे में आ गए और अपनी जमीन का सौदा कर लिया। लाखों रुपए में खेती की जमीन का सौदा करके किसान शहर में आ गए और कोई व्यवसाय शुरू करना का सोचा। शहर आकर कार खरीद ली और बच्चों को महंगे स्कूल में भर्ती करवा दिया। कुछ रुपयों से मकान और ऐशो-आराम के सामान खरीद लिए। बाकी बची रकम से व्यवसाय शुरू किया, लेकिन अनुभव न होने के कारण रकम गवां दी। अजीविका का साधन न होने से धीरे-धीरे सब बिक गया और वापिस गांव में आकर मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं। रोंडा के मोहन गोस्वामी बताते हैं कि 60 बीघा जमीन बेचने के बाद लाखों रुपए आए, लेकिन अब कुछ भी नहीं है। जिन खेतों में मजदूर लगाते थे, उन्हीं में मजदूरी करना पड़ रही है। यही हाल गांव के रामकरण दांगी का है। ये लोग बताते हैं कि गांव के आधे किसानों ने जमीन बेंच दी और सब परेशान हैं। इस जमीन को खरीदने वालों ने अपनी काली कमाई को सुरक्षित रखने के लिए जमीन का सौदा किया, लेकिन किसानों को बर्बाद कर दिया। कुछ यही हाल भोपाल से सटे कोलार, नयापुरा के अधिकांश किसानों का हुआ।


अधिग्रहण से भी जमीन घटी


महेश्वर-हायडल प्रोजेक्ट से राज्य की कुछ आबादी को चाहे बिजली मिलने की उम्मीद हो, लेकिन इस प्रोजेक्ट पर कम शुरू होते ही वहां के अविवाहित युवकों की परेशानी खड़ी हो गई है। पाटीदार समाज बाहूल्य इस क्षेत्र में पिछले 16 वर्षों से युवकों की शादी करना महज एक सपना बन गया है। इस बीच में वहां इक्का-दुक्का युवकों के ही विवाह हो सके हैं। इस बांध के अंतर्गत डूब में आने वाले61 गांवों में निवास करने वाले परिवारों से उनके रिश्तेदारों ने कन्नी काट ली है। कोई भी स्वजाति परिवार वहां के लड़कों को अपना दामाद नहीं बनाना चाहते जबकि लड़कियों की शादी में कोई बाधा नहीं आ रहीं है। गौरतलब है कि खरगौन जिले के मंडलेश्वर में महेश्वर हायड्रल प्रोजेक्ट से 400 मेगावाट बिजली बनेगी । बांध की चपेट में61 गांव आ जाएंगे। इस बांध का निर्माण कार्य लगभग पूरा होने की कगार पर है, जिसमें शासन   के नियमानुसार इन सभी गांवों का पुनर्वास होना है, लेकिन पुनर्वास में केवल इन गांवों के कृषकों के रहने के लिए आशियाना भर ही मिलेगा। जिससे इनके पास जीविका चलाने का कोई भी साधन नहीं बचेगा। पाटीदार समाज गैर कृषक परिवारों में अपनी लड़की की शादी करना उचित नहीं समझते है। डूब में आने वाले सूल गांव के निवासी शंकर पाटीदार बताते है कि हमारे समाज का जीविका चालने का मुख्या साधन कृषि है। जिसमें बिना कृषि वाले किसान के यहां कोई भी विवाह करने को तैयार नहीं होता है। इससे हमारे गांव सहित आसपास के 22 गांवों में अनेक युवा बिना शादी के ही रह गए है, क्योंकि हमारी जमीन एक या दो साल में डूब क्षेत्र में आ जाएगी। वहीं पथराड़ गांव के लखन बताते है कि डूब क्षेत्र होने के कारन यह स्थिति निर्मित हुई है। समाज की परंपरा अनुसार बिना कृषि वाले लोगों के यहां शादी करना ठीक नहीं माना जाता है। इस समास्या के कारण कई युवा तो यहां से पलायन कर गए है।

इंदौर में हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि खतरे में


इंदौर में आवास पर्यावरण विभाग की प्रस्तावित स्पेशल टाउनशिप पॉलिसी पर अमल हुआ तो इंदौर जिले की 32 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खतरे में पड़ जाएगी। खास बात यह है कि इसमें 27 हजार हेक्टयर जमीन अत्यधिक उपजाऊ है। जमीनों पर गिद्ध की तरह नजर रखने वाले भू-माफिया को इससे न केवल खुला क्षेत्र मिल जाएगा बल्कि जिले में खेती पूरी तरह चौपट हो जाएगी। प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर के लिए जो विकास योजना (मास्टर प्लान) 1991 और 2021 बनी है, उसमें प्रत्येक क्षेत्र के लिए जमीनों का संरक्षण किया गया है। जिले की 50 हजार 525 हेक्टेयर जमीन में से मास्टर प्लान 2021 में कृषि के लिए 31 हजार 820 हेक्टेयर और आवासीय उपयोग के लिए 7 हजार 352 हेक्टेयर जमीन संरक्षित की गई है। टाउनशिप पॉलिसी के प्रस्तावों ने मास्टर प्लान के विश्लेषण और संभावनाओं के साथ उन सर्वे और विश्लेषणों को भी नकार दिया है जो जीआईएस (जियोग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम) और अन्य सैटेलाइट की मदद से बनाए गए हैं। इसमें नगर तथा ग्राम निवेश विभाग के साथ ही शासन भी कहीं न कहीं झूठा साबित हो रहा है, जिसने प्लान को मंजूरी दी। यह सब बड़े बिल्डरों और कॉलोनाइजर को फायदा पहुंचाने की कवायद माना जा रहा है।


हर तरफ कॉलोनी


भोपाल के एक बिल्डर ने औबेदुल्लागंज के समीप करीब 200 किसानों की जमीन खरीदकर टाउनशिप का प्लान किया। ये खुलासा हुआ उस समय हुआ जब बिल्डर पर आयकर विभाग ने शिकंजा कसा। इन किसानों ने आयकर विभाग में दिए बयान में बताया कि हमारी खेती की जमीन को बिल्डर ने बरगलाकर खरीद लिया। अब किसानों का अजीविका का जरिया छिन चुका है। भोपाल से सीहोर, दीवानगंज, परवलिया, नयापुरा, औबेदुल्लागंज तक खेती की जमीन खत्म होकर टाउनशिप की भेंट चढ़ गई। इससे बिल्डरों को तो करोड़ों का फायदा हुआ, लेकिन किसानों को रोजगार के लाले पड़ गए। यही हाल जबलपुर, उज्जैन, इंदौर, ग्वालियर का है। महानगरों के समीप लगे क्षेत्र ग्राम पंचायत में आने के कारण बिल्डर आसानी से फार्म हाउस के नाम पर प्लाट काट कर बेंच रहे हैं। यही हाल प्रदेश केअधिकांश जिला मुख्यालयों के आस-पास की जमीन का है।


विकास के नाम पर भी खत्म हो रही जमीन


महेश्वर हाइड्रिल प्रोजेक्ट हो या इंदिरा सागर बांध परियोजना, संजय सागर बांध परियोजना अथवा राष्ट्रीय राज्यमार्ग। विकास की इबारत लिखने वाली योजनाओं ने किसानों पर कहर ढाया है। इन परियोजनाओं के कारण सैंकड़ों गांव की किसानी की जमीन चली गई। किसानों को मुआवजा तो मिला, लेकिन अजीविका के लिए खेती की जमीन नहीं मिल सकी।
 

Tuesday 6 December 2011

पैसे के लालच में आतंकियों के फर्जी ड्राइविंग लाइसेंस बनवा देते हैं एजेंट

‘काल’ के दलाल!



परिवहन विभाग में मिनटों में काम करवाने के लिए सक्रिय दलाल यानि एजेंट और विभाग के बाबू यमदूत बनते जा रहे हैं। जिलों के आरटीओ आॅफिस ही नहीं राजधानी के आरटीओ आॅफिस में भी बिना दलालों के पत्ता नहीं हिलता। ये अवैध दलाल केवल आरटीओ विभाग के काम ही नहीं करवाते, बल्कि कागज पूरे नहीं होने पर फर्जी तरीके से भी काम करवा देते हैं। यही कारण है कि रासिद नाम के आरटीओ एजेंट ने शेख मुजीब और असलम जैसे खतरनाक आतंकियों के ड्रायविंग लायसेंस बनवा दिए। लेन-देन और दलालों के लिए बदनाम आरटीओ विभाग में जारी धांधली को बताती प्रमोद त्रिवेदी की स्टोरी...

ड्रायविंग लायसेंस एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, जो हर शासकीय विभाग में मान्य है। परिवहन विभाग से जारी होने वाले इस महत्वपूर्ण दस्तावेज के आधार पर पासपोर्ट भी जारी हो सकता है, लेकिन परिवहन विभाग इस दस्तावेज को जारी करने में पूरी तरह लापरवाह है। यही कारण है कि अबु सलेम जैसे खतरनाक हत्यारे और मोनिका बेदी ने भोपाल में फर्जी ड्राइविंग लायसेंस बनवाए और पासपोर्ट बनाकर हिंदुस्तान छोड़कर भाग गए थे। इसके बाद भी परिवहन विभाग में दलालों की कारस्तानी पर अंकुश नहीं लगा। विगत 11 अक्टूबर 2011 को खतरनाक सिमी आतंकी शेख मुजीब के नार्को टेस्ट में खुलासा हुआ कि उसने भोपाल परिवहन कार्यालय से ड्रायविंग लायसेंस बनवाया था। ये लायसेंस मुजीब को एक आरटीओ एजेंट ने बनवाकर दिया था। इतना ही नहीं लायसेंस के लिए आवश्यक दस्तावेज भी एजेंट ने फर्जी तरीके से तैयार करके विभागीय बाबूओ से मिलकर लायसेंस मुहैया करा दिया। एटीएस ने राहिद नाम के आरटीओ एजेंट को गिरफ्तार कर लिया। आतंकी लायसेंस दिखाकर किराए से मकान, सिम लेते थे तथा पुलिस चेकिंग के दौरान भी ड्रायविंग लायसेंस उनकी खासी मदद करता था। इस खुलासे के बाद जाहिर हो गया है कि परिवहन विभाग केवल लेन-देन ही नहीं कर रहा, बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर रुपयों के लिए आतंकियों की मदद भी कर रहा है।


कमाई के खातिर सब जायज

एक चार पहिया वाहन के लायसेंस की फीस 370 रुपए है। इसके लिए आवेदक को निर्धारित प्रपत्र में आवेदन भरकर आरटीओ आफिस में जमा करना होता है, लेकिन केवल 1 फीसदी लायसेंस ही सीधे आवेदक उपस्थित होकर बनवाता है। बाकि दलाल के सहारे से ही लायसेंस बनते हैं। भोपाल आरटीओ आफिस के एक दलाल ने बताया कि सीधे लायसेंस बनवाने में आवेदन में एक भी गलती हो जाए तो कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसके बाद भी लायसेंस बनने की कोई गारंटी नहीं है। दलाल एक लायसेंस के 12 सौ रुपए लेता है तो समय पर लायसेंस बनवाकर देता है। आवेदक को केवल फोन करके फोटो खिंचवाने के लिए बुलाया जाता है। ट्रायल से लेकर बाकी औपचारिकताएं रुपए की दम पर दलाल पूरी करता है। आरटीओ आॅफिस में बाबू से लेकर अधिकारियों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि दलाल ने जो कागजात संलग्न किए हैं, वे फर्जी तो नहीं हैं। इसी का फायदा उठाकर आतंकी आसानी से लायसेंस बनवा लेते हैं।


कई बदमाश भी बन गए हैं एजेंट

आरटीओ आॅफिस में दलाल अघोषित तौर पर काम करते हैं। आरटीओ बताते हैं कि लोग अपना काम करवाने के लिए दलाल का सहारा लेते हैं, इसमें विभाग की कोई गलती नहीं है। इसी लिए आरटीओ को इससे भी कोई मतलब नहीं है कि दलाल का चरित्र कैसा है। इसी का फायदा उठाकर कुछ आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी दलाल बन गए हैं। ऐसे लोग रुपए के लालच में आसानी से आतंकियों के मददगार बन जाते हैं।



एक साल पहले सिमी गुर्गोंं से इंदौर में ड्रायविंग लायसेंस बनवाने की जानकारी मिलने व उनके पास से इंदौर आरटीओ की सील बरामद होने से स्थानीय आरटीओ में हडकंप मचा था। एटीएस के हत्थे चढेÞ सिमी गुर्गों ने पूछताछ में जो जानकारी दी थी, उसमें बताया था कि उन्होंने इंदौर, भोपाल, रतलाम, लखनऊ में ड्राइविंग लायसेंस बनवाए थे ये लायसेंस फर्जी नामों से बनवाए गए थे। इनका उपयोग वे शहरों में मकान किराए पर लेने में भी करते थे। यह लायसेंस वर्ष 2007 में बनवाए गए थे। इंदौर में बने लायसेंस में किन एजेंटों ने मदद की व किस अधिकारी ने किन दस्तावेजों के आधार पर इनको बनाया इसकी जांच भी की गई थी। सिमी के गुर्गे अबू फैजल, साजिद, फरहान ने खजराना में रहने के दौरान आरटीओ के एजेंटों से साफ किया था जिस पर लायसेंस बनवाए गए थे। इसमें अधिकारियों से एजेंटों ने काम करवाया था। इससे इंदौर आरटीओ आॅफिस में काफी दिनों तक खलबली रही और बाद में फिर दलाल और अधिकारियों की सांठगांठ से फर्जी काम होने लगे।




सिमी तथा इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े होने के आरोप में गिरफ्तार किए गए आरोपियों के लायसेंसों के भी सघन पड़ताल का अध्याय खुलने जा रहा है। भोपाल तथा लखनऊ से बनवाए गए ड्रायविंग लायसेंस के संबंध में एटीएस को जेल के भीतर जाकर पूछताछ करने की मंजूरी अदालत ने दे दी है। सिमी तथा इंडियन मुजाहिद्दीन संगठन के संबंध रखने के अरोपियों ने भोपाल तथा लखनऊ आरटीओ से ड्राइविंग लायसेंस भी बनाए थे। इन लाइसेंसों के निर्माण में जिन दस्तावेजों का उपयोग   किया गया, वे कितने सही हैं और कितने फर्जी, इस सवाल का हल खोजने के लिए अब एटीएस ने अपनी पड़ताल को नया रुख दिया है। जबलपुर सीजेएम शरद चंद सक्सेना की कोर्ट से इस बात की अनुमति मांगी गई कि जेल में निरुद्ध शेख मुजीब और असलम से जेल के भीतर जाकर पूछताछ की इजाजत दी जाए। आरोपियों की ओर से अधिवक्ता नईम खान ने अदालत में पक्ष रखते हुए कहा कि इससे उन्हें कोई एतराज नहीं है। जिला अभियोजन अधिकारी के पक्ष को सुनने के बाद अदालत ने अर्जी पर अपनी मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार लायसेंस निर्माण के मामले में एजेंट की भूमिका संदिग्ध है। इसके लिए उपयोग में लाए गए निवास के दस्तावेज एजेंट द्वारा उपलब्ध कराए गए थे। एटीएस एजेंट और आरोपियों के ताल्लुकातों पर भी गहराई से पड़ताल करेगी। एटीएस ने अपनी तफ्तीश में इन बिन्दुओं को शामिल किया है कि लायसेंस के लिए किस तरह के दस्तावेजों का इस्तेमाल किया गया है। पता चला है कि आरोपियों द्वारा कुछ फर्जी दस्तावेज प्रस्तुत किए गए हैं। पूछताछ के बाद कुछ नए खुलासों की उम्मीद जताई जा रही है। 



प्रदेश के आतंक निरोधी दस्ते द्वारा राजधानी और जबलपुर से पकड़े गए इंडियन मुजाहिदीन के कुख्यात आतंकी के मामले में खुलासा हुआ कि शेख मुजीब ने भोपाल आरटीओ कार्यालय से ड्रायविंग लायसेंस भी बनवा लिए थे। इनकी मदद से उसने दोनों शहरों में तमाम मोबाइल सिम खरीदीं और मकान भी किराए पर लिए। दरअसल वह लखनऊ में अयोध्या का फैसला देने वाले जजों की हत्या करना चाहता था। इस मामले में एटीएस ने भोपाल से एक व लखनऊ से तीन और गिरफ्तारियां की हैं। ये सब शेख मुजीब के 11 अक्टूबर 2011 को हुए नार्को टेस्ट के बाद हुआ। अबू फैजल के साथ जबलपुर में पकड़ा गया शेख मुजीब वर्ष 2008 में अहमदाबाद में हुए धमाकों का नामजद आरोपी है। उसने स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) और इंडियन मुजाहिदीन के गठजोड़ में भूमिका निभाई है। इस महीने 11 अक्टूबर को जब अहमदाबाद में उसका नार्को टेस्ट हुआ तो तमाम बातें सामने आई। शेख मुजीब ने अपना नाम अहमद कलान रख लिया था। उसने भोपाल आरटीओ आफिस से ड्राइविंग लाइसेंस बनवा लिया था। एड्रेस प्रूफ बनाने के लिए आरटीओ के एक दलाल राहिद ने उसकी मदद की थी। राहिद को एटीएस ने गिरफ्तार कर लिया है। इसी तरह शेख मुजीब ने लखनऊ आरटीओ आफिस से भी एक ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया था। इसमें बीमा पालिसी और फर्जी राशन कार्ड बनवाने वाले पप्पू सरदार, एक मल्होत्रा और एक अन्य युवक को एटीएस ने गिरफ्तार कर लिया है। शेख मुजीब पिछले साल 30 सितंबर को आए अयोध्या फैसले के बाद लगातार लखनऊ में रहा था। वहां उसने किराए का मकान लिया था। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर रामजन्म भूमि का फैसला देने वाले तीनों हाईकोर्ट जजों की हत्या की साजिश रची थी। शेख मुजीब ने ही अबू फैजल के साथ मिलकर आतंकी संगठनों को पैसा देने के लिए भोपाल में 14 किलो सोने की डकैती की थी। इसके साथ ही प्रदेश के छह बैंकों में डकैतियां की थीं। 



शेख मुजीब वर्ष 2008 में अहमदाबाद में हुए ब्लास्ट में साइकिल पर जगह-जगह बम रखकर कई लोगों की जान ले चुका है। वर्ष 2008 के अहमदाबाद धमाकों में वह नामजद आरोपी है। अहमदाबाद के बाद आतंकियों ने सूरत को दहलाने की कोशिश की थी। सूरत में एक दर्जन से ज्यादा जगहों पर बम रखने वाले कयामुद्दीन कपाड़िया को एटीएस टीम ने उज्जैन से गिरफ्तार किया था। वह भोपाल और उसके आसपास के इलाके में छिपा रहा था। मुजीब जयपुर बम धमाकों में वांटेड शेखुर्रहमान का भी साथी रहा है। मुजीब के देशभर में वांटेड इंडियन मुजाहिदीन का सरगना तौकीर उर्फ डाक्टर सुभान के प्रदेश में पकड़े गए सफदर नागौरी और उसके साथियों से गहरे संबंध रहे हैं। 




किसी वारदात में जब फर्जी दस्तावेजों से लायसेंस बनने की खबर आती है तो हम अतिरिक्त सतर्कता बरतते हैं। जालसाजों से बचने का तो प्रयास किया जाता है, लेकिन जालसाज तो नकली नोट तक बना लेते हैं। एजेंट का किसी तरह का पुलिस वेरीफिकेशन नहीं कराया जाता और न ही परिवहन विभाग एजेंट नियुक्त करता है। जनता अपनी सुविधा के लिए निजी तौर पर इनकी सेवाएं लेती है। इसमें परिवहन विभाग का कोई दखल नहीं होता है।
पीएस बम्हरोलिया, आरटीओ, भोपाल

Saturday 3 December 2011

नेताओं के लिए दुधारू गाय है एसएटीआई


नेताओं को रोजगार देता है ये इंजीनियरिंग कॉलेज

जीवाजी सोसायटी के सभी तीनों कॉलेजों में एसएटीआई विदिशा में तीन गुना नॉन टीचिंग स्टॉफ, अपनों पर लुटाए जा रहे करोड़ों रुपए
इंट्रो:
नेताओं को पालने के लिए अब इंजीनियरिंग के छात्रों से वसूली की जाएगी। इसके लिए हर छात्र की फीस में दोगुनी से ज्यादा वृद्धि की जा रही है। ये कारनामा हुआ है (सम्राट अशोक अभियांत्रिकीय संस्थान) एसएटीआई विदिशा में। नॉन टीचिंग स्टॉफ के नाम पर राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों से लेकर कार्यकर्ताओं को पालने के लिए एसएटीआई सालाना 634 लाख रुपए खर्च कर रहा है। जबकि नियमानुसार टीचिंग स्टॉफ के खर्च से नॉन टीचिंग स्टाफ का खर्च आधा होना चाहिए। प्रदेश सरकार से अनुदान और छात्रों से ली जाने वाली शुल्क से नेताओं को पालने में परेशानी आई तो छात्रों पर बोझ डाला जा रहा है। राजनीतिक कारस्तानियों के चलते नेताओं का पालनहार बने एसएटीआई कॉलेज और छात्रों के शोषण की पोल खोलती प्रमोद त्रिवेदी की विशेष खबर
भोपाल।
जीवाजी सोसायटी का एक इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसा है जो नेताओं को रोजगार देता है। एसएटीआई कॉलेज विदिशा टीचिंग फैकल्टी के मामले में भले ही समझौता कर ले, लेकिन ‘अपनो’ को पालने के लिए नॉन टीचिंग स्टॉफ रखने में अव्वल हो गया है। महंगाई बढ़ने पर हर माह मिलने वाले वेतन से नेताओं का पेट नहीं भरा तो छठवां वेतनमान के हिसाब से वेतन मांगा गया। इस वेतन को देने में पहले से नॉन टीचिंग स्टाफ पर खरोड़ों खर्च कर रहे एसएटीआई संस्थान पर अतिरिक्त बोझ आना लाजिमी था। इसके लिए रास्ता निकाला छात्रों से फीस वसूली में वृद्धि का। इसके लिए छात्रों की फीस में दोगुनी से ज्यादा फीस बढ़ाने का फरमान जारी किया गया। फीस बढ़ाने का कारण बताया गया शासन से मिलने वाले अनुदान से कॉलेज संचालन न हो पाना। जबकि हकीकत ये है कि टीचिंग फैकल्टी पर सालाना 480 लाख रुपए खर्च होते हैं तो नॉन टीचिंग फैकल्टी पर 634 लाख रुपए लुटाए जा रहे हैं। इसमें कांग्रेस, भाजपा, बजरंग दल से लेकर लगभग सभी राजनीतिक दलों के पदाधिकारी से लेकर कार्यकर्ता भी नॉन टीचिंग स्टॉफ के तौर पर यहां से हर माह वेतन ले रहे हैं। इसके अलावा राजनेताओं के ‘भोंपू’ बने लेखकों के बेटे-बेटियां भी सालों से सरकार के अनुदान और छात्रों की फीस पर पल रहे हैं। यहीं कारण है कि सब जानते हुए भी किसी ने मामले को उजागर करने का प्रयास नहीं किया।



कांग्रेस शासनकाल में एसएटीआई को नियमों को परे रखकर करीबन 5.25 करोड़ रुपए अनुदान दिया जाता था। भाजपा शासनकाल के शुरुआती दो सालों तक तो 5.25 करोड़ रुपए ही अनुदान मिला, लेकिन बाद में नियमानुसार करीबन 2.25 करोड़ अनुदान दिया गया। अनुदान नियमानुसार होने पर छठवां वेतनमान देने पर एसएटीआई प्रबंधन को परेशानी आनी शुरु हुई। इसके लिए एसएटीआई प्रबंधन ने रास्ता निकाला छात्रों की फीस वृद्धि का। इसके लिए छात्रों की फीस दोगुनी से भी ज्यादा बढ़ाने का निर्णय लिया गया। इस निर्णय के विरोध में छात्र मुखर हुए, तो प्रबंधन सोची-समझी रणनीति के तहत छात्रों के साथ हो गया और फीस वृद्धि का विरोध करते हुए अनुदान बढ़ाने की मांग करने लगा। इसके लिए छात्रों के साथ जीवाजी कमेटी के सचिव और एसएटीआई मैनेजिंग कमेटी के अध्यक्ष (जो कांग्रेस से पूर्व सांसद भी रहे हैं) ने भी मुख्यमंत्री से मुलाकात की। मुख्यमंत्री ने अनुदान राशि के बारे में नियमानुसार कार्रवाई का आश्वासन दिया है। 


00अनुदान सही, लेकिन भर्ती गलत

एसएटीआई सूत्र बताते हैं कि अनुदान तो नियमानुसार मिल रहा है, लेकिन नॉन टीचिंग स्टॉफ की अंधाधुंध भर्ती के कारण परेशानी आ रही है। जीवाजी कमेटी के प्रदेश में दो अन्य कॉलेज भी हैं, जिनमें किसी तरह की फीस वृद्धि नहीं की जा रही है। इसका कारण है वहां नॉन टीचिंग स्टॉफ नियमानुसार है। जीवाजी कमेटी के एसजीएसआईटीएस इंदौर और एमआईटीएस ग्वालियर में नॉन टीचिंग स्टॉफ, टीचिंग स्टॉफ से कम है तो एसएटीआई विदिशा में नॉन टीचिंग स्टॉफ करीबन तीन गुना है। यही नॉन टीचिंग स्टॉफ के नाम से भर्ती नेता और उनके कार्यकर्ता छात्रों की फीस वृद्धि का कारण बन रहे हैं।

00नौकरी वाले नेता

एसएटीआई में ऐसे कई नेता नौकरी कर रहे हैं जो किसी न किसी पार्टी के पूर्णकालिक सदस्य या पदाधिकारी हैं। कांग्रेसी अध्यक्ष होने के कारण कांग्रेस के नेता ज्यादा हैं, जबकि अन्य दलों का मुंह बंद रखने केलिए दूसरे दलों के पदाधिकारियों को भी नौकरी दी गई है। इनमें अध्यक्ष के निकटतम रहे पत्रकार से लेकर डॉक्टरों के भी परिजन एसएटीआई में नौकरी कर रहे हैं। इसका भार पहले भी छात्रों पर आता था और अब पूरा का पूरा भार छात्रों पर डालने की तैयारी है।

00निजी कॉलेजों में हाल जुदा


भोपाल के नाम निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के टीचिंग स्टॉफ भी कम है और नॉन टीचिंग स्टॉफ भी। जबकि इन कॉलेजों में बेहतर फैकल्टी और अन्य सुविधाएं हैं। निजी कॉजेलों में शासन के नियमानुसार ही भर्ती की गई है। जबकि सूत्र बताते हैं कि एसएटीआई में शासन के नियमानुसार रेशो सही   नहीं रखा गया।

00परेशानी में कर्मचारी


जीवाजी प्रबंधन ने राजनीति के लिए नॉन टीचिंग स्टॉफ को नियम के विपरीत रख लिया, लेकिन शासन ने नियमों का पालन किया तो इस स्टॉफ में से 75 फीसदी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। ऐसे में कई सालों से बिना राजनीतिक पॉवर के एसएटीआई में नौकरी कर रहे कर्मचारियों पर गाज गिरना तय है। सरकार से ग्रांट बढ़ाने की मांग करने पर शासन स्तर पर जांच होने पर नियम विरुद्ध भर्ती की जांच होगी और कई वास्तविक काम करने वाले कर्मचारियों का रोजगार छिन सकता है।

00ये हैं हालात  


GSITS इंदौर MITS ग्वालियर  SATI विदिशा    प्राय.इंस्टी.भोपाल1 प्राय.इंस्टी.भोपाल1
कोर्स(यूजी) 9 8 8 8 5
बीई 600 420 480 750 420
एमसीए 60 60 90 60 60
एमटेक 200 150 205 162 144
रेग्युलर फैक्ल्टी 110 81 67 105 90
टीएफओ, रेगुलर 110 50 72 0 0
कुल फैकल्टी 220 131 138 105 90
3 श्रेणी कर्मचारी 130 120 220 70 60
4 श्रेणी कर्मचारी 120 80 165 20 15
(क्र.8+9)योग 250 202 385 90 75
**आंकड़े जाहिर करते हैं कि जीवाजी कमेटी के इंदौर और ग्वालियर के कॉलेजों में नॉन टीचिंग स्टॉफ का लेबल नियमानुसार रखा गया। इसके साथ भोपाल के नामी इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी नियम का पालन हुआ, लेकिन एसएटीआई विदिशा में सारे नियम दरकिनार किए गए।

00ये है सेलेरी का ढांचा



रेगुलर फैकल्टी पर सालाना खर्च 360 लाख
टीएफओ फैकल्टी पर सालाना खर्च 25 लाख
कांन्ट्रेट फैकल्टी पर सालाना खर्च  95 लाख
कुल सालाना खर्च 480 लाख
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तृतीय श्रेणी कर्मचारियों पर सालाना खर्च 428 लाख
चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों पर सालाना खर्च 164 लाख
तृतीय श्रेणी अस्थाई कर्मचारियों पर सालाना खर्च 22 लाख
पीडीपी स्टाफ पर सालाना खर्च 13 लाख
विल्डिंग सेंटर स्टाफ पर सालाना खर्च 5 लाख
कुल खर्च 634 लाख
**आंकड़े जाहिर करते हैं कि कई सालों से टीचिंग स्टॉफ से बहुत ज्यादा खर्च नॉन टीचिंग स्टॉफ पर किया जा रहा है। जबकि उच्च शिक्षा विभाग के नियमानुसार टीचिंग स्टॉफ से आधे खर्च तक ही नॉन टीचिंग स्टॉफ को रखा जा सकता है।
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  अनुदान तो शासन के नियमानुसार ही दी जा रही है। जब आॅडिट में देखा गया कि बिना आवश्यकता के राजनीतिक हित पूर्ति के लिए नॉन टीचिंग स्टॉफ रखा गया तो शासन ने नियमानुसार अनुदान राशि में आवश्यक फेर बदल किया। हकीकत ये है कि नॉन टीचिंग स्टॉफ को कंट्रोल कर लिया जाए तो न तो सरकार को अनुदान बढ़ाना पड़ेगा और न ही छात्रों की फीस बढ़ाने की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कई खर्च ऐसे हैं जो इंस्टीट्यूशन के लिए राजनीति करने के लिए किए जाते हैं। जब नेता एक इंस्टीट्यूशन से राजनीतिक खर्चों की भरपाई करेगा, तो करोड़ों का अनुदान भी कम पड़ जाएगा। अगर इंस्टीट्यूशन इमानदारी से चल रहा है तो इन्हें सारे खर्च सार्वजनिक कर देना चाहिए। कई ऐसे लोगों को एसएटीआई से तनख्याय मिल रही है जो कभी नौकरी करने गए ही नहीं, बल्कि मंच से राजनीतिक पार्टियों के समर्थन में भाषण देते हैं।

गुरुचरण सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता/ पूर्व सदस्य एसएटीआई एवं विधायक।
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सरकार ने हमारी समिति द्वारा प्रदेश में संचालित तीनों कॉलेजों की ग्रांट कम कर दी। पहले जो ग्रांट लगभग साढ़े पांच करोड़ थी, उसे घटाकर सवा दो करोड़ कर दिया गया। सरकारी अनुदान से चलने वाले अर्द्धशासकीय कॉलेज का सुचारू संचालन ऐसी स्थिति में मुश्किल हो गया। इससे कॉलेज प्रबंधन पर अधिक भार आने लगा। इस बारे में सरकार का तर्क था कि ग्रांट के बाद जो भी भार आता है उसे स्टूडेंट की फीस से वहन किया जाए। सरकार के ग्रांट कम करने और फीस बढ़ाने के निर्देश के तहत फीस में वृद्धि का निर्णय लिया गया था। हलांकि इस निर्णय को अभी लागू नहीं किया गया है। हम लोगों ने प्रदेश सरकार से इस बारे में चर्चा की है और हमारा प्रयास है कि फीस वृद्धि का बोझ स्टूडेंट पर न आए। इसके लिए सतत प्रयास किए जा रहे हैं। नॉन टीचिंग ज्यादा रखने संबंधी आरोप निराधार हैं। एसएटीआई में मानक मापदण्डों के अनुसार ही स्टॉफ नियुक्त है। हमने पिछले 5 साल में कोई नियुक्ति नहीं की है। नॉन टीचिंग स्टॉफ ज्यादा होने की बात भाजपा के लोग करते हैं। वह इस तरह के आरोप इसलिए लगाते हैं, जिससे उन्हें ग्रांट न बढ़ाने पड़े। फीस वृद्धि का निर्णय भी केवल एसएटीआई विदिशा में नहीं लिया गया, बल्कि अनुदान की राशि न बढ़ने पर प्रदेश के तीनों कॉलेजों में मजबूरन फीस बढ़ानी होगी

प्रतापभानु शर्मा
सचिव महाराजा जीवाजीराव एजुकेशन सोसायटी एवं अध्यक्ष, एसएटीआई मैनेजिंग कमेटी